Thursday, March 24, 2011

महानगरों में पानी ( नवभारत टाइम्स-25 Mar 2011)


राजधानी दिल्ली और आसपास के शहरों की कॉलोनियों में सुबह सुबह एक दृश्य बहुत आम है। अपने फ्लैट के किसी नल या सार्वजनिक बंबे से पाइपजोड़कर लोग बड़ी निष्ठा से अपनी - अपनी गाड़ियां धोते नजर आते हैं। लेकिन इन कॉलोनियों से थोड़ी ही दूर पर दस - ग्यारह बजे के आसपास एक और दृश्यभी देखा जा सकता है। पूर्वी दिल्ली या बाहरी दिल्ली के किसी कम समृद्ध इलाके में लंबे इंतजार के बाद दिल्ली जल बोर्ड का टैंकर आया होता है और एक -दूसरे के साथ उलझते हुए लोग बड़ी बेसब्री से अपने - अपने घर की बाल्टियां और कनस्तर ही नहीं , गिलास - कटोरियां तक भर रहे होते हैं।

ऐसी घटनाओं के लिए पहले मुंबई बदनाम था , लेकिन पानी की चिंताजनक सीमा तक कम सप्लाई के बावजूद इसके बंटवारे का काम वहां पहले से बेहतर हुआहै। गाड़ी धोने जैसी गतिविधियों में पानी बर्बाद करने को लेकर मुंबई के लोग हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। खुशी की बात है कि मुंबई में जहां - तहां किचन केपानी की री - साइकलिंग भी शुरू हो गई है। दिल्ली में तो अभी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वॉटर हार्वेस्टिंग के लिए राजधानी की कई सरकारीइमारतों में पाइप और पंप जरूर लगा दिए गए हैं , लेकिन इनकी सफलता के ब्यौरे अभी आने बाकी हैं। महानगरों में उनकी जरूरत भर पानी पहुंचाना औरजहां तक हो सके , इस पानी की बर्बादी रोकना भारत के लिए निकट भविष्य की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।

किसने सोचा था कि दिल्ली और इसके आसपास के इलाके पीने के पानी के लिए यमुना के बजाय इतनी दूर से निकल रही गंगा पर निर्भर हो जाएंगे ? लेकिनआज यह हकीकत है। यमुना में पानी बहुत कम है और जो है भी , वह इतना गंदा है कि उसकी सफाई का खर्चा उसको सौ किलोमीटर दूर से ढोकर लाए गए गंगाके पानी से भी महंगा बना देता है। अर्थव्यवस्था के मौजूदा ढांचे में केंद्रीय भूमिका महानगरों को ही निभानी है। रोजी - रोजगार का ज्यादातर हिस्सा भी घूम -फिरकर यहीं आने वाला है। ऐसे में लोगबाग पहला मौका मिलते ही दिल्ली , मुंबई , कोलकाता , चेन्नई , बेंगलुरु , हैदराबाद या अहमदाबाद का रुख कर रहे हैं ,भले ही यहां अपना ठिकाना बनाने के लिए उन्हें गांवों - कस्बों में अपनी पैतृक संपत्ति बेचनी पड़े। महानगरों में स्वर्ग से सुंदर आशियाना बनाने का सपना बहुतआकर्षक है और इसे दिखाने में बिल्डर - ब्रोकर ही नहीं , सरकारें भी पूरे मनोयोग से जुटी हैं। लेकिन महानगर में रीयल एस्टेट के इर्दगिर्द केंद्रित विकासरणनीति की अपनी कुछ प्राकृतिक सीमाएं भी हैं।

यहां रहने वालों को कपड़े धोने और फ्लश करने जैसी जरूरी दैनंदिन गतिविधियों के लिए ग्रामीण या कस्बाई आबादी की तुलना में कहीं ज्यादा पानी चाहिए।वह भी किसी बावड़ी या जोहड़ का नहीं , हर रोज लाखों रुपये खर्च करके पीने लायक बनाया गया पानी , जिसे अगले ही दिन कचरे में बदलकर नालियों मेंबहा दिया जाता है। समस्या यह है कि पानी के जिन स्रोतों के पड़ोस में ये शहर बसाए गए थे , उनका आकार दिनोंदिन घट रहा है , जबकि उनसे पानी की मांगकहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। समय आ गया है कि इस मुश्किल को हम खुली आंखों से देखें और इसके हल की दिशा में जो भी बन पड़ता है , वह करें।

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