Tuesday, September 18, 2012

जल भंडार खत्म होने की चिंता (Dainik Jagran 19 September 2012)



तीन तरीके: योजना आयोग को चाहिए कि पानी की कीमत बढ़ाए, ट्यूबवेल की अधिकतम गहराई निर्धारित करे और क्षेत्र के लिए अनुपयुक्त फसलों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाए

जल के अंधाधुंध दोहन की गंभीर होती समस्या से निपटने के उपायों पर प्रकाश डाल रहे हैं डॉ. भरत झुनझुनवाला
योजना आयोग ने भूमिगत जल के गिरते स्तर को गंभीरता से लिया है। जल के संबंध में स्ट्रेटजी पेपर लिखा जा रहा है, जो कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में जोड़ा जाएगा। विशाल तालाब और नदियों में बरसात का पानी एकत्रित रहता है। ट्यूबवेल का इजाद होने के बाद इस जल को निकालना संभव हो गया है। पानी का यह भंडार बैंक में जमा राशि की तरह होता है। आप जितना पैसा डालते हैं उतना ही निकाल सकते हैं। ज्यादा निकालने का प्रयास करने पर चेक बाउंस हो जाता है। इसी प्रकार भूमिगत जल का जितना पुनर्भरण किया जाता है उतना ही निकाला जा सकता है। पानी अधिक निकालने से भूमिगत जलस्तर गिर रहा है और उसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। किसानों के दो वर्ग हैं। एक वर्ग प्रभावी एवं समृद्ध है। दूसरा गरीब एवं कमजोर है। समृद्ध वर्ग गहरे ट्यूबवेल खोदकर भूमिगत तालाबों का पानी खींच लेता है। परिणामस्वरूप पूरे क्षेत्र का भूमिगत पानी नीचे चला जाता है, जैसे टंकी में से पानी निकालने पर उसका जल स्तर गिरने लगता है। आसपास के छोटे किसानों के कुएं सूख जाते हैं। मेरे एक मित्र राजस्थान में कुंओं में ट्यूबवेल लगाते थे। किसी गांव में उन्होंने एक ट्यूबवेल की डिलिंग की। पानी निकला। सब प्रसन्न हुए। अगले दिन सुबह ही पड़ोसी किसान दौड़ा आया। उसने कहा कि उसका कुआं सूख गया है। हुआ यूं कि नए ट्यूबवेल ने संपूर्ण भूमिगत जल सोख लिया। अंतत: मेरे मित्र को दूसरे किसान के कुएं में भी डिलिंग करनी पड़ी। अंतिम परिणाम यह हुआ कि दोनों का पानी ज्यादा गहरा हो गया। पूर्व में संचित पानी के
निकाल लिए जाने के बाद शीघ्र ही दोनों किसान अपनी पुरानी स्थिति में आ गए। निष्कर्ष है कि भूमिगत जल के अति दोहन से लाभ समृद्ध किसान को होता है, जबकि कमजोर किसान पानी से वंचित हो जाता है।
भूमिगत जल के अति दोहन का दूसरा दुष्परिणाम यह है कि धरती के गर्भ में पड़े रसायन ऊपर आ जाते हैं। धरती में तमाम विषैले रसायन होते हैं, जैसे आर्सेनिक एवं फ्लोराइड। ये भूमिगत तालाब के निचले हिस्से में सुप्त पड़े रहते हैं। ऊपर के हिस्से में नए पानी का भरण होता है और निकाल लिया जाता है। गहरे ट्यूबवेल खोदने से गर्भ में पड़े ये रसायन ऊपर आ जाते हैं। देश के बड़े हिस्से में ये रसायन पीने के पानी में प्रवेश कर रहे हैं और रोग बढ़ा रहे हैं। इस तरह समुद्र तट के नजदीक गहरे कुएं खोदने से गुजरात आदि तटीय राज्यों में समुद्र का खारा पानी प्रवेश कर रहा है जो सिंचाई योग्य भी नहीं रह गया है।
पानी के अति दोहन से हमारी नदियां सूख रही हैं। पूर्व में यमुना का पानी बारह महीने दिल्ली पहुंचता था। अब हरियाणा और उत्तर प्रदेश में नदी के किनारे गहरे ट्यूबवेल लगा दिए गए हैं। हथिनीकुंड बैराज से छोड़े जाने के बाद 20-25 किलोमीटर में ही पानी पूरी तरह भूमि में समा जाता है। यमुना में पलने वाली मछलियां एवं कछुए मर रहे हैं। तीर्थयात्रियों को स्नान करने के लिए जल नहीं मिल रहा है। नदी के तट पर उगने वाले वृक्ष मर रहे हैं। उन पर बसने वाली चिड़ियों के बसेरे समाप्त हो रहे हैं। संपूर्ण क्षेत्र का पर्यावरण नष्ट हो रहा है। इन दुष्प्रभावों से निपटने के लिए सुझाव दिया गया है कि स्प्रिंकलर अथवा डिप विधि से सिंचाई की जाए। सुझाव सही दिशा में है, परंतु किसान इन विधियों को लागू करने में तब ही पैसा लगाएंगे जब पानी का दाम बढ़ाया जाएगा। पानी सस्ता और पर्याप्त मात्र में उपलब्ध होगा तो किसान इन उपकरणों में निवेश नहीं करेंगे। अत: जरूरी है कि किसानों को दी जा रही मुफ्त बिजली को तत्काल समाप्त  किया जाए। इस बढ़ी हुई लागत की भरपाई गेहूं आदि के निर्धारित मूल्य में वृद्धि से की जानी चाहिए। दूसरा सुझाव है कि नए टयूबवेल लगाने के लिए लाइसेंस जारी किए जाएं। समस्या है कि पूर्व में खोदे गए ट्यूबवेलों से पानी का अति दोहन जारी रहेगा। जलस्तर में जो वर्तमान गिरावट हो रही है वह जारी रहेगी। मात्र इस गिरावट की गति में वृद्धि नहीं होगी। यह मूल समस्या का हल नहीं है। दूसरी समस्या सामाजिक न्याय की है। जिन लोगों ने पूर्व में ट्यूबवेल लगा लिए हैं उन्हें भूमिगत जल के अतिदोहन का अवसर मिल जाएगा। जो अब ट्यूबवेल लगाने को सक्षम हुए हैं वे सदा के लिए वंचित रह जाएंगे।
समस्या से दूसरी तरह से निपटा जा सकता है। हर क्षेत्र में अधिकतम गहराई निर्धारित कर दी जानी चाहिए, जैसे 400 फुट तक डिलिंग करने की छूट दे दी जानी चाहिए। पूर्व में जो इससे गहरे ट्यूबवेल खुदे हुए हैं उन्हें निर्धारित गहराई तक भर दिया जाए। ऐसा करने से 400 फुट के ऊपर का ही पानी निकाला जा सकेगा। इससे नीचे पानी का जलस्तर नहीं गिरेगा। किसानों के लिए मेड़बंदी आदि से पुनर्भरण करना लाभप्रद हो जाएगा, क्योंकि उनके द्वारा पुनर्भरण किए गए पानी को दूसरे द्वारा निकालना संभव नहीं होगा।
समस्या का तीसरा हल फसल चक्र के निर्धारण से निकल सकता है। देखा जाता है कि कम पानी के क्षेत्रों में भी पानी की अधिक खपत करने वाली फसलों को उगाया जा रहा है। जोधपुर में मिर्च, गुलबर्गा में अंगूर, कोटा में नहर के हेड पर धान और बरेली में मेंथा और गन्ना उगाया जा रहा है। ये फसलें इन स्थानों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। इन फसलों के उत्पादन को तमिलनाडु एवं बंगाल जैसे जल से परिपूर्ण क्षेत्रों के लिए सीमित कर देना चाहिए। हर क्षेत्र में पानी की उपलब्धता को देखते हुए ही फसल को उगाने की छूट देनी चाहिए। इससे पानी की खपत नियंत्रित होगी और भूमिगत जल पर दबाव स्वत: ही समाप्त हो जाएगा। योजना आयोग को चाहिए कि पानी की कीमत बढ़ाए, ट्यूबवेल की अधिकतम गहराई निर्धारित करे और क्षेत्र के लिए अनुपयुक्त फसलों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाए। साथ-साथ किसानों की बढ़ी हुई लागत की भरपाई मूल्य वृद्धि से करे।
(लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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